पितृमुक्ति का पहला द्वार है प्रयागराज

अविनाश रावत
प्रयागे माघमासे तु त्र्यहं स्नानस्य यत्फलम्। नाश्वमेधसस्त्रेण तत्फलं लभते भुवि।।
"पद्मपुराण' के इस श्लोक का मतलब है कि इलाहाबाद में माघ मास के समय तीन दिन पर्यन्त संगम स्नान करने से प्राप्त फल पृथ्वी पर एक हज़ार अश्वमेध यज्ञ करने से भी नहीं प्राप्त होता। कुंभ में यहां स्नान करने से बड़ा कोई पुण्य नहीं है। इलाहाबाद। उत्तर भारत के उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में स्थित एक नगर एवं इलाहाबाद जिले का प्रशासनिक मुख्यालय। इसका प्राचीन नाम प्रयाग है। इसे "तीर्थराज' (तीर्थों का राजा) या प्रयागराज भी कहते हैं। हिन्दू मान्यता है कि यहां सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने सृष्टि का निर्माण कार्य पूर्ण होने के बाद प्रथम यज्ञ किया था। संगम वह स्थल है जहां भारत की पवित्र नदियों गंगा-यमुना व सरस्वती का संगम होता है। सरस्वती नदीं यहां दिखती नहीं। फिर भी मान्यता है कि वह अदृश्य रूप में है और गंगा व यमुना की धाराओं के नीचे बहती है। इसी वजह से संगम स्थल को त्रिवेणी संगम कहा जाता है। जैसे ग्रहों में सूर्य तथा तारों में चंद्रमा है वैसे ही तीर्थों में संगम को सभी तीर्थों का अधिपति माना गया है तथा सप्तपुरियों को इसकी रानियां कहा गया है। त्रिवेणी संगम होने के कारण इसे यज्ञ वेदी भी कहा गया है।
गंगा, यमुना, सरस्वती, कावेरी, गोदावरी, कृष्णा, सिंधु, क्षिप्रा, ब्रह्मपुत्र आदि सभी ‍नदियों के अपने अपने संगम है। हिंदू धर्म के तीन देवता हैं शिव, विष्णु और ब्रह्मा और तीन देवियां हैं पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती। इसीलिए सभी जगह त्रिवेणी का महत्व और बढ़ जाता है। संगम और त्रिवेणी वस्तुत: एक ही स्थान है जहां गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम होता है। यह दुर्लभ संगम विश्व प्रसिद्ध है। गंगा, यमुना के बाद भारतीय संस्कृति में सरस्वती को महत्व अधिक मिला है। हालांकि गोदावरी, नर्मदा, सिंधु, कावेरी तथा अन्यान्य नदियों का भी सनातन मत में महत्व है। मगर वरिष्ठता के हिसाब से गंगा पहले, यमुना दूसरे और सरस्वती को तीसरा स्थान देते हैं। सरस्वती नदी के साथ अद्भुत ही बात है कि प्रत्यक्ष तौर पर सरस्वती नदी का पानी कम ही स्थानों पर देखने को मिलता है। इसका अस्तित्व अदृश्य रूप में बहता हुआ माना गया है।
धारणा है कि समुद्र मंथन के समय जब अमृत कलश प्राप्त हुआ तब देवता इस अमृत कलश को असुरों से बचाने के प्रयास मे लगे थे। इसी खींचातानी में अमृत कि कुछ बूंदें धरती पर गिरी थी। जहां-जहां भी यह बूंदें पडी उन स्थानों पर कुंभ का मेला लगता है। यह स्थान उज्जैन, हरिद्वार, नासिक व प्रयाग थे। इलाहाबाद के प्रयागराज में सबसे बड़ा कुंभ मेला लगता है। संगम तट पर लगने वाले कुम्भ मेले के बिना इलाहाबाद का इतिहास अधूरा है। प्रत्येक बारह वर्ष में यहाँ पर 'महाकुम्भ मेले' का आयोजन होता है, जो कि अपने में एक लघु भारत का दर्शन करने के समान है। इसके अलावा प्रत्येक वर्ष लगने वाले माघ स्नान और कल्पवास का भी आध्यात्मिक महत्व है। महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार माघ मास में तीन करोड़ दस हज़ार तीर्थ इलाहाबाद में एकत्र होते हैं और विधि-विधान से यहां ध्यान और कल्पवास करने से मनुष्य स्वर्गलोक का

अधिकारी बनता है। इस स्थान पर कलश से अमृत की बूदें छ्लकी थी इसी कारण लोगों का विश्वास है कि संगम में स्नान करने से सारे पाप धुल जाते है व स्वर्ग की प्राप्ति होती है। पदम पुराण में ऐसा माना गया है कि जो त्रिवेणी संगम पर नहाता है उसे मोक्ष प्राप्त होता है।
शहर का वर्तमान नाम अकबर द्वारा 1553 में रखा गया था। हिन्दी नाम इलाहाबाद का अर्थ अरबी शब्द इलाह (अकबर द्वारा चलाये गए नये धर्म दीन--इलाही के सन्दर्भ से, अल्लाह के लिये) एवं फारसी से आबाद (अर्थात बसाया हुआ) – यानि 'ईश्वर द्वारा बसाया गया', या 'ईश्वर का शहर' है। प्राचीन काल में शहर को प्रयाग (बहु-यज्ञ स्थल) के नाम से जाना जाता था। ऐसा इसलिये क्योंकि सृष्टि कार्य पूर्ण होने पर सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने प्रथम यज्ञ यहीं किया था, व उसके बाद यहां अनगिनत यज्ञ हुए। भारतवासियों के लिये प्रयाग एवं वर्तमान कौशाम्बी जिले के कुछ भाग यहां के महत्वपूर्ण क्षेत्र रहे हैं। यह क्षेत्र पूर्व से मौर एवं गुप्त साम्राज्य के अंश एवं पश्चिम से कुशान साम्राज्य का अंश रहा है। बाद में ये कन्नौज साम्राज्य में आया। 1526 में मुगल साम्राज्य के भारत पर पुनराक्रमण के बाद से इलाहाबाद मुगलों के अधीन आया। अकबर ने यहां संगम के घाट पर एक वृहत दुर्ग निर्माण करवाया था। शहर में मराठों के आक्रमण भी होते रहे थे। इसके बाद अंग्रेजों के अधिकार में आ गया। 1765 में इलाहाबाद के किले में थल-सेना के गैरीसन दुर्ग की स्थापना की थी। 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इलाहाबाद भी सक्रिय रहा। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन यहां दरभंगा किले के विशाल मैदान में 1888 एवं पुनः 1892 में हुआ था।
धर्मशास्त्रों में प्रयाग को पितृमुक्ति का पहला, काशी को दूसरा और गया को तीसरा द्वार माना गया
है। हिंदू धर्म में अंतिम संस्कार के बाद अस्थि विसर्जन और पितृपक्ष में पुर्खों के नाम पिंडदान और पितृ तर्पण भी यहीं किया जाता है। मान्यता है कि प्रयाग में संगम के जल में मुक्ति के देवता स्वयं विष्णु वेणी माधव के रूप में वास करते हैं। इस कारण यह पितरों की मुक्ति का प्रथम दरवाजा है। यहीं से पुर्खों की मुक्ति और तृप्ति की यह यात्रा प्रयाग से शुरू होती है। इसके बाद मध्य द्वार काशी और गया होते हुए बद्री धाम में स्थापना के साथ ही यह यात्रा पूर्ण मान ली जाती है। ऐसी मान्यता है कि प्रयाग में संगम तट पर पिंडदान करने पर भगवान विष्णु के साथ ही 33 करोड़ देवी-देवता प्रसन्न होते हैं। इससे वे पितरों को मुक्ति प्रदान करते हैं। प्रयाग का महत्व सबसे बड़ा है। यहां पिंडदान करने के बाद संगम में स्नान और जल का तर्पण करने की परंपरा है।

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