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मर्यादा पुरूषोत्तम राम की वह विस्मृत बहन !

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अविनाश रावत. दुनिया भर में तीन सौ से ज्यादा रामायण प्रचलित हैं। इ नमें वाल्मीकि रामायण, कंबन रामायण और रामचरित मानस, अद्भुत रामायण, अध्यात्म रामायण और आनंद रामायण की चर्चा ज्यादा होती है।  सभी रामायणों की कथाओं में थोड़ी-थोड़ी भिन्नता है। भगवान राम के बारे में कई लोकथाएं भी हैं। उत्तर भारत में रामचरित मानस में लिखी गई राम-कथा को ही ज्यादातर लोग जानते और मानते हैं।  इसके मुताबिक भगवान राम के तीन भाई लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न थे, लेकिन राम की बहन के बारे में कम लोग ही जानते हैं।  रामचरित मानस में राम की बहन का जिक्र कहीं भी नहीं किया गया है।  हां, बाल्मीकि रामायण में एक बार दशरथ की पुत्री शांता का उल्लेख करते हुए लिखा गया है - 'अङ्ग राजेन सख्यम् च तस्य राज्ञो भविष्यति। कन्या च अस्य महाभागा शांता नाम भविष्यति।' दक्षिण भारत की रामायण और लोक-कथाओं के अनुसार राम की   दो बहनें भी थी एक शांता और दूसरी कुकबी। हम यहां आपको शांता के बारे में बताएंगे।  शांता चारों भाइयों से बड़ी थीं। वे राजा दशरथ और कौशल्या की पुत्री थीं। इस संबंध में तीन कथाएं हैं।  पहली कथा के अनुसार   वर्षिणी नि:

प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री जी जरा यहां भी ध्यान दें

नर्मदा , ताप्ती , बेतव , चम्बल , सोन , क्षिप्रा और महानदी जैसी मध्यप्रदेश की प्रमुख नदियों , तालाबों व कुंओं के दूषित होने की प्रमुख वजह इनमें डाला जाने वाला धार्मिक कचरा है। इन नदियों के समीप स्थित धार्मिक स्थलों , गांव और शहरों की जनता पूजा , अनुष्ठान , यज्ञ इत्यादि के बाद निकली सामग्री को पवित्र मानते हैं और उन्हें किसी नदी , तालाब या कुंए में ही विसर्जित करते हैं। यहां तक की जिस पॉलीथिन या बैग में यह पूजन सामग्री , फूल मालाएं इत्यादि रखी जाती है , लोग उसे भी पवित्र मानते हैं और धार्मिक कचरे के साथ इसे भी विसर्जित कर देते हंै। नदी , तालाब व कुंओं को बचाने के लिए प्रदेश स्तर पर पहल धार्मिक कचरे के निपटान की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसके लिए जमीन में एक बड़ा गड़डा या किया जा सकता है। इस गड़्डे में सिर्फ धार्मिक कचरा ही डाला जाए। धार्मिक कचरा इकट्‌ठा करने के लिए गड्‌डे खोदना , घरों से धार्मिक कचरा इकट्‌ठा करना और उसे प्रोसेस कर निपटान करने की जिम्मेदारी प्रदेश के गैर सरकारी संगठनों को दी जा सकती है। चूंकि धार्मिक कचरे से लोगों की धार्मिक भावनाएं जुड़ी होती हैं इसलिए वे उसे स्वयं जलाशयों म

खाने के बाद अब चम्मच भी खाइए

- ज्वार के आटे से बन रही खाने योग्य कटलरी - स्वादिष्ट भी है ओवन में बनी चम्मच अविनाश रावत- चम्मच का इस्तेमाल खाने के लिए करने के साथ अब उसे खाया भी जा सकता है। हैदराबाद स्थित बी के एनवायरनमेंटल इनोवेशन प्राइवेट लिमिटेड ने इस अवधारणा को वास्तविकता में बदला है। यूज एंड ईट कल्टर, ज्वार के न्यूट्रीशन और खेती को बढ़ावा देने के साथ ही प्लास्टिक के इस्तेमाल को कम करने और पर्यावरण के लिहाज से हानिकारक प्लास्टिक और लकड़ी की कटलरी (चम्मच, कांटे, छुरी और चीनी कांटा) के विकल्प के रूप में आटा, ज्वार, गेहूं और चावल आदि के मिश्रण से तैयार की गई कटलरी का निर्माण किया है। प्लास्टिक की कटलरी की विकास दर 30 फीसदी के हिसाब से बढ़ रही है। इससे नॉन-बॉयोडीग्रेडेबल अपशिष्ट को बढ़ावा मिल रहा है। इस तरह की समस्या से लड़ने के लिए खाने योग्य कटलरी ही एकमात्र विकल्प और समाधान है। इससे डिस्पोजेबल कांटे, चम्मच, चॉपस्टिक और चाकू की सुविधा के साथ ही ज्वार व अन्य अनाजों की घरेलू खपत भी बढ़ने के साथ ही किसानों को फायदा हो रहा है। इस तरह बन रही है खाने वाली चम्मच गौरतलब है कि ज्वार चावल से चार गुना ज्यादा पौष्टिक होता है

280 सालों में दोगुना हो गया गणेश प्रतिमा का आकार

खजराना गणेश मंदिर की प्रतिमा हर साल बढ़ जाती है, जिसके कारण यह विश्वप्रसिद्ध हो गई है।  1735 में जब मूर्ति की स्थापना हुई थी तब यह तीन फीट लंबी और सवा दो फीट चौड़ी थी। लेकिन अब इसकी ऊंचाई 6 फीट और चौड़ाई 5 फीट के करीब बताई जा रही है। कहा जाता है कि हर साल मूर्ति एक सेंटीमीटर बढ़ रही हैं। आकार बढ़ने को लेकर चर्चाओं के बारे में पता चला है कि यहांं भगवान गणेश की मूर्ति पर चोला चढ़ाने की परंपरा है, इसी वजह से आकार बढ़ रहा है। जब यहांं भगवान गणेश की मूर्ति की स्थापना की गई थी, तब इनके साथ रिद्धि-सिद्धि की प्रतिमा की भी थीं। लेकिन चोला चढ़ाने की वजह से भगवान गणेश की मूर्ति का आकार बढ़ने लगा और रिद्धि-सिद्धि की प्रतिमा उनके साथ छिप गईं। अब भी मूल मूर्ति में रिद्धि-सिद्धि की आंखें नजर आती हैं। मंदिर का इतिहास... खजराना गणेश मंदिर का निर्माण 1735 में तत्कालीन होल्कर वंश की शासक अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया था। तत्कालीन पुजारी मंगल भट्ट को स्वप्न आया कि यहांं पर भगवान गणेश की मूर्ति जमीन में दबी हुई है, उसे वहां से निकालो। पुजारी ने दरबार में जाकर स्वप्न की बात अहिल्याबाई को बताई

दुनिया में बेजोड़ हैं इंदौर नमकीन

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अविनाश रावत पिछले दिनों मेरी मां हाई ब्लड प्रेशर का इलाज कराने के लिए इंदौर आयी। इलाज कराते-कराते शहर में उनका मन लग गया तो कुछ दिन और रुक गई। जाहिर सी बात है रिश्तेदारों को फ्रिक होगी और फार्मेलिटी के लिए देखने भी आंएगे और आए भी। हर किसी ने जाने से पहले इंदौर के प्रसिद्ध नमकीन का जिक्र जरूर किया। अब जिक्र किया है तो लाना तो मुझे ही पड़ेगा। मां दो महीने शहर में रुकी और मैंने इस दौरान 5 हजार रूपए से ज्यादा सिर्फ रिस्तेदारों को नमकीन खिलाने में खर्च दिए। फिर मन में आया कि अकेले मैंन इतना खर्च कर दिया तो यह कारोबार होगा कितना बढ़ा। दिमाग में सवाल आया है तो कीड़ा शांत करना ही पड़ेगा। आइए अब बात करते हैं शहर के नमकीन कारोबार की। इंदौरी नमकीन का कोई जबाव नहीं है। आपको शायद पता हो कि इंदौर नमकीन से पहले रतलाम के पास इस कारोबार में महारत हासिल थी। नमकीन और खासतौर पर सेव के मामले में रतलाम का ही डंका बजता था तभी तो इंदौर में जब यह कारोबार शुरू हुआ तो सेव का नाम रतलामी सेव ही रखा गया। अब रतलाम में सेव व नमकीन का ज्यादा कारोबार नहीं बचा है लेकिन इंदौर ने अब भी रतलामी सेव का नाम और स्वाद जिंद