महाश्मशान घाट है मणिकर्णिका
बनारस से लौटकर- अविनाश रावत
मणिकर्णिका घाट। वाराणसी में गंगानदी के तट पर स्थित एक प्रसिद्ध घाट। बनारस की कई चीज़ें पूरे संसार में प्रसिद्ध है। काशी विश्वनाथ मंदिर, बनारसी साड़ी, बनारसी पान, बनारस की गलियां, बनारस के सांड, अस्सी घाट। इन्हीं में से एक है मणिकर्णिका घाट। इस घाट से जुड़ी भी दो कथाएं हैं। एक के अनुसार भगवान विष्णु ने शिव की तपस्या करते हुए अपने सुदर्शन चक्र से यहां एक कुण्ड खोदा था। उसमें तपस्या के समय आया हुआ उनका स्वेद (पसीना) भर गया। जब शिव वहां प्रसन्न हो कर आये तब विष्णु के कान की मणिकर्णिका उस कुंड में गिर गई थी।
दूसरी
कथा के अनुसार भगवाण शिव को
अपने भक्तों से छुट्टी ही नही
मिल पाती थी। देवी पार्वती
इससे परेशान हुईं और शिवजी
को रोके रखने हेतु अपने कान
की मणिकर्णिका वहीं छुपा दी
और शिवजी से उसे ढूंढने को
कहा। शिवजी उसे ढूंढ नही पाये
और आज तक जिसकी भी अन्त्येष्टि
उस घाट पर की जाती है,
वे
उससे पूछते हैं कि क्या उसने
देखी है।
प्राचीन
ग्रन्थों के अनुसार मणिकर्णिका
घाट का स्वामी वही चाण्डाल
था, जिसने
सत्यवादी राजा हरिशचंद्र को
खरीदा था। उसने राजा को अपना
दास बना कर उस घाट पर अन्त्येष्टि
करने आने वाले लोगों से कर
वसूलने का काम दे दिया था।
शक्ति
पीठ की स्थापना के दौरान भगवन
शिव के मां सरस्वती को दिए गए
वरदान स्वरुप काशी नगरी की
नींव एवं मणिकर्णिका घाट के
स्थापना का स्वरुप दिखाया और
वरदान दिया की गंगा अपने अवतरण
के पश्चात उनके साथ मिलकर
बहेंगी और यहीं स्थापित होगा
शिव का ज्योतिर्लिंग जिसे
कालांतर में काशी विश्व्नाथ
के नाम से जाना जायेगा। ऐसा
माना जाता है की भगवान शिव का
एक भैरो आज भी वहां की रक्षा
करते हैं। ये आदि शक्ति और शिव
की सम्पूर्णता का प्रतीक है।
यहाँ देवी सती का कर्णमंडल
गिरा था। ये प्रमुख 51
शक्तिपीठों
मैं प्रमुख है।
हिंदू
रीति रिवाजों के मुताबिक सिर्फ
दिन में ही दाह संस्कार किया
जाता है। गंगा के तट पर मणिकर्णिका
घाट भारत का एक मात्र ऐसा घाट
है जहाँ दिन रात यानि 24
घंटे
शवों का दाह संस्कार किया जाता
है। यहां न सिर्फ दिन में बल्कि
रात में भी शव जलाए जाते हैं।
इस घाट की विशेषता ये है,
कि
यहां लगातार हिन्दू अन्त्येष्टि
होती रहती हैं व घाट पर चिता
की अग्नि लगातार जलती ही रहती
है, कभी
भी बुझने नहीं पाती। सिर्फ
बनारस और आस पास के ही नही बल्कि
के दूर दराज के इलाकों के भी
लोग इसी घाट से अपने प्रियजनों
को अंतिम विदाई देते हैं।
विदेशी भारतीय भी अंतिम क्रिया
के लिए इसी घाट का रुख करते
है। इसी लिए मणिकर्णिका घाट
को महाश्मशान कहा जाता है।
इस घाट को महाश्मशान कहे जाने
के पीछे एक मान्यता यह भी है
कि भगवान शंकर की पत्नी पार्वती
की मणि यहां गिरी थी। इसलिए
यहां दाह संस्कार करने से
व्यक्ति को सीधे मोक्ष की
प्रप्ति होती है।इसीलिए यहाँ
24 घंटे
शव दाह होता है.
मणिकर्णिका
घाट खुले आसमान के नीचे शव
जलते रहते हैं। यहां शवों को
भी अपनी बारी का इंतज़ार करना
पड़ता है। दिन में करीब ढाई-तीन
सौ शव आते हैं और जितने शव जल
रहे होते हैं, उससे
ज्यादा शव दाह संस्कार की कतार
में रहते है। शवों को अग्नि
देने से पहले उन्हें गंगा में
स्नान कराने की परंपरा है ।
मणिकर्णिका घाट पर शवों को
उनकी अर्थी समेत गंगा में
डुबकी लगवा दी जाती है,
इसके
बाद इन्हें प्रतीक्षा सूची
में रख दिया जाता है। जिस जगह
पर शवों का दाह होता है,
उसके
करीब दस फीट की दूरी पर ही आपको
कई लोग ऐसे नजर आएंगे जो लोहे
के तसले में पानी को छानते है।
यह सब सोने की तलाश में होता
है। मणिकर्णिका घाट का पर गंगा
का पानी एक दम काला है। शवों
के जलने के बाद राख को नदी में
बहा दिया जाता है। इसी राख को
लोग छलनी से छानते रहते है।
काशी के इस श्मशान के बारे में ये मशहूर है कि यहां चिता पर लेटने वाले को सीधे मोक्ष मिलता है। दुनिया का वो इकलौता श्मशान जहां चिता की आग कभी ठंडी नहीं होती। जहां लाशों का आना और चिता का जलना कभी नहीं थमता। पर जब दहकती चिताओं के ठीक करीब डांस होने लगे. मातम के बीच तेज़ संगीत पर लड़कियां थिरकने लगें और जब मौत की ख़ामोशी डांस की मस्ती में बदल जाए तो फिर चौंकना लाजिमी है।
श्मशान यानी जिंदगी की आखिरी मंजिल और चिता…यानी जिंदगी का आखिरी सच। पर जरा सोचें….अगर इसी श्मशान में उसी चिता के करीब कोई महफिल सजा बैठे और शुरू हो जाए श्मशान में डांस तो उसे आप क्या कहेंगे? खामोश, ग़मगीन, उदास और बीचबीच में चिताओं की लकड़ियों के चटखने की आवाज अमूमन किसी भी श्मशान का मंज़र या माहौल कुछ ऐसा ही होता है।
पर एक रात ऐसी जो श्मशान के लिए बेहद खास है. एक ऐसी रात जो श्मशान के लिए रौनक की रात है. क्योंकि ये रात इस श्मशान पर साल में सिर्फ एक बार उतरती है और बस इसीलिए साल के बाकी 364 रातों से ये रात बिलकुल अनोखी बन जाती है। ये एक रात इस श्मशान के लिए जश्न की रात है। इस एक रात में इस श्मशान पर एक साथ चिताएं भी जलती हैं और घुंघरुओं और तेज संगीत के बीच कदम भी थिरकते हैं।
अब सवाल उठता है कि चिता के बीच ये डांस ये मस्ती क्यों? क्यों इंसान को मरने के बाद भी चिता पर सुकून मयस्सर नहीं होने दिया जा रहा? क्यों कुछ लड़कियां श्मशान में चिताओं के करीब नाच रही हैं?
साल में एक बार एक साथ चिता और महफिल दोनों का ही गवाह बनता है काशी का मणिकर्णिका घाट। वही मणिकर्णिका घाट जो सदियों से मौत और मोक्ष का भी गवाह बनता आया है। चैत्र नवरात्रि अष्टमी को सजती है इस घाट पर मस्ती में सराबोर एक चौंका देने वाली महफ़िल। एक ऐसी महफ़िल जो जितना डराती है उससे कहीं ज्यादा हैरान करती है।
क्या है इस महफिल का सच
दरअसल चिताओं के करीब नाच रहीं लड़कियां शहर की बदनाम गलियों की नगर वधु होती हैं। कल की नगरवधु यानी आज की तवायफ। पर इन्हें ना तो यहां जबरन लाया जाता है ना ही इन्हें इन्हे पैसों के दम पर बुलाया जाता है।
काशी के जिस मणिकर्णिका घाट पर मौत के बाद मोक्ष की तलाश में मुर्दों को लाया जाता है वहीं पर ये तमाम नगरवधुएं जीते जी मोक्ष हासिल करने आती हैं। वो मोक्ष जो इन्हें अगले जन्म में नगरवधू ना बनने का यकीन दिलाता है। इन्हें यकीन है कि अगर इस एक रात ये जी भरके यूं ही नाचेंगी तो फिर अगले जन्म में इन्हें नगरवधू का कलंक नहीं झेलना पड़ेगा।
इनके लिए जीते जी मोक्ष पाने की मोहलत बस यही एक रात देता है। साल में एक बार ये मौका आता है चैत्र नवरात्र के आठवें दिन। और इस दिन श्मशान के बगल में मौजूद शिव मंदिर में शहर की तमाम नगरवधुएं इकट्ठा होती हैं और फिर भगवान के सामने जी भरके नाचती हैं। यहां आने वाली तमाम नगरवधुएं अपने आपको बेहद खुशनसीब मानती हैं।
sex workers ritual dance at manikarnika ghat
सैकड़ों साल पुरानी है यह परम्परा
लेकिन काशी के इस घाट पर ये सबकुछ अचानक यूं ही नहीं शुरू हो गया. बल्कि इसके पीछे एक बेहद पुरानी परंपरा है। श्मशान के सन्नाटे के बीच नगरवधुओं के डांस की परंपरा सैकड़ों साल पुरानी है। मान्यताओं के मुताबिक आज से सैकड़ों साल पहले राजा मान सिंह द्वारा बनाए गए बाबा मशान नाथ के दरबार में कार्यकम पेश करने के लिए उस समय के जाने-माने नर्तकियों और कलाकारों को बुलाया गया था लेकिन चूंकि ये मंदिर श्मशान घाट के बीचों बीच मौजूद था, लिहाजा तब के चोटी के तमाम कलाकारों ने यहां आकर अपने कला का जौहर दिखाने से इनकार कर दिया था।
लेकिन चूंकि राजा ने डांस के इस कार्यक्रम का ऐलान पूरे शहर में करवा दिया था, लिहाज़ा वो अपनी बात से पीछे नहीं हट सकते थे। लेकिन बात यहीं रुकी पड़ी थी कि श्मशान के बीच डांस करने आखिर आए तो आए कौन?
इसी उधेड़बुन में वक्त तेज़ी से गुज़र रहा था। लेकिन किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। जब किसी को कोई उपाय नहीं सूझा तो फैसला ये लिया गया कि शहर की बदनाम गलियों में रहने वाली नगरवधुओं को इस मंदिर में डांस करने के लिए बुलाया जाए।
उपाय काम कर गया और नगरवधुओं ने यहां आकर इस महाश्मशान के बीच डांस करने का न्योता स्वीकार कर लिया। ये परंपरा बस तभी से चली आ रही है।
गुज़रते वक्त के साथ जब नगरवधुओं ने अपना चोला बदला तो एक बार फिर से इस परंपरा के रास्ते में रोड़े आ गए। और आज की तारीख में इस परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए बाकायदा मुंबई की बारगर्ल तक को बुलाया जाता है। यही नहीं परंपरा किसी भी क़ीमत पर छूटने ना पाए, इसका भी ख़ास ख्याल रखा जाता है और इसके लिए साल के इस बेहद खास दिन तमाम इंतज़ाम किए जाते हैं। इस आयोजन को ज़्यादा से ज्यादा सफ़ल बनाने के लिए पुलिस-प्रशासन के नुमाइंदे बाकायदा इस महफिल का हिस्सा बनते हैं। इस परंपरा की जड़ें कितनी गहरी हैं इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बनारस आने वाले कई विदेशी सैलानी भी इस ख़ास मौके को देखने से खुद को नहीं रोक पाते।
ये बेहद अनोखी और चौंकाने वाली परंपरा जितनी सच है उतना ही सच है इन नगरवधुओं का वजूद जो हर जमाने में मोक्ष की तलाश में यहां आता रहा है।
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