यहां संगीत सुनाती हैं शिलाएं

यदि आप रहस्य और रोमांच से रू-ब-रू होना चाहते हैं, तो एक बार पोटला के जंगल पहुंच जाएं। वहां की अष्टकोणीय शिलाएं आपका मन मोह लेंगी। इनकी विशेषता यह है कि जब आप लोह तरंग की तरह इन्हें बजाएंगे, तो अलग-अलग प्रकार की आवाजें सुनाई देंगी। देशभर में सिर्फ उदयनगर के पास स्थित देवझिरी में ही यह शिलाएं पाई जाती हैं। पर्यटन निगम का अभी इस पर ध्यान नहीं गया है। अलबत्ता होलकर साइंस कॉलेज का भू-गर्भशास्त्र विभाग इस पर काम कर रहा है। 

इंदौर से करीब 70 किमी दूर है उदयनगर फारेस्ट रेंज। यहां से कुछ दूरी पर देवझिरी गांव के पास पोटला का जंगल प्राकृतिक संपदाओं से भरा हुआ है। यहां का कावड़िया पहाड़ जियो टूरिज्म की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान हो सकता था लेकिन वन विभाग ने कभी ध्यान ही नहीं दिया। डीबी स्टार की टीम यहां पहुंची तो कई प्रकार के रोचक नजारे देखने को मिले। करीब ढ़ाई हजार मीटर लंबे और पांच किमी के दायरे में पहाड़ की सात चोटियां ऐसी प्रतीत हो रही थीं मानो वह सैलानियों का स्वागत करने को आतुर हों। 



शिलाएं सुनाती हैं सरगम 

अष्ट और अष्टकोणीय शिलाओं से भरी इन पहाड़ियों ने टीम को रोमांचित कर दिया। साथ गए ग्रामीणों ने बताया इन्हें बजाकर देखिए। बस फिर क्या था, जब इन शिलाओं पर पत्थर और लोहे की छड़ों से आघात किया गया तब लौह तरंग की तरह ध्वनि निकलने लगी। ग्रामीणों ने बताया कि जब भी उन्हें वक्त मिलता है वे यहां आकर राग पहाड़ी सुनने लगते हैं। उनका आशय था कि वे यहां इन शिलाओं को पूरे मन से बजाते हैं। 

भूगर्भीय हलचल से बनी शिलाएं 

होलकर साइंस कॉलेज के जियोलॉजी विभाग के डॉ नरेंद्र जोशी के मुताबिक कावड़िया पहाड़ पर इन शिलाओं का निर्माण भू-गर्भीय हलचल के कारण हुआ है। जमीन से निकला लावा ठंडा होने के बाद विशेष अाकृति में ढल गया। गर्म लावा ठंडा होकर ठोस हुआ और बेसाल्ट पत्थरों में बदल गया। यही वजह है कि इन पत्थरों से अलग-अलग प्रकार की ध्वनि निकलती है। इन शिलाओं में आयरन कंटेंट भी भरपूर मात्रा में विद्यमान है। उन्होंने बताया कि सामान्य पत्थरों पर कभी जंग नहीं लगता, लेकिन इन शिलाओं पर आयरन कंटेंट के कारण जंग लग रहा है। उन्होंने बताया कि भू-गर्भीय अध्ययन की दृष्टि से यह पहाड़ियां बेमिसाल हैं। शासन इसे जियो पार्क या जियो हेरिटेज की तरह विकसित कर सकता है। फिलहाल होलकर साइंस कॉलेज की ओर से इस संबंध में शासन को एक प्रस्ताव बनाकर भेजा जा रहा है। 

रिगनोदिया में भी है एक शिला

उज्जैन रोड पर रिंगनोदिया गांव के रास्ते पर भवानी टेकरी नाम की एक छोटी पहाड़ी पर भी इसी तरह की शिला रखी हुई है। शिला के पास ही माता का मंदिर बना दिया गया है। कावड़िया पहाड़ की शिलाओं की तरह इस शिला से भी अलग तरह की आवाज आती है।

ऐसी शिलाएं ऑस्ट्रिया में भी हैं

डॉ जोशी ने बताया कि कावड़िया जैसी पहाड़ियां ऑस्ट्रिया में भी हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि वहां की पहाड़ियां खंभेनुमा आकृति में हैं। उनकी संख्या भी इतनी ज्यादा नहीं है। यहां कावड़िया की पहाड़ियां इस तरह नजर आती हैं, मानो किसी ने शिलाओं को सलीके से जमाया हो। 

कैसे पहुंचे?

कावड़िया पहाड़ इंदौर से करीब 70 किमी दूर है। रालामंडल के पीछे तिल्लौर बुजुर्ग होते होते हुए उदयनगर के रास्ते यहां तक पहुंचा जा सकता है। खंडवा रोड़ और कंपेल होते ही भी यहां तक पहुंचा जा सकता है लेकिन रास्ता लंबा है। उदयनगर का रास्ता जंगल के बीच से गुजरता है। यहां से कावडिय़ा पहाड़ के पास पहुंचते ही अद्भुत पत्थरों का यह दर्शनीय नजारा नीचे से ही शुरू हो जाता है। पहाड़ की चोटी तक पहुंचने के लिए यहां पत्थरों से बना सीढ़ीनुमा रास्ता भी अद्भुत है। काली पहाड़ी पुंजापुरा के पास है। इसके आसपास हरा-भरा जंगल होने के कारण दूर से पत्थर दिखाई नहीं देते, लेकिन आधा रास्ता तय करने के बाद पहाड़ी का सौंदर्य लुभाने लगता है। 


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