यहां होली नहीं, रंगपंचमी होती है विशेष

अशोकनगर जिले से करीब 35 किलोमीटर दूरी पर करीला स्थित है। यहां माता सीता का भव्य मंदिर बना हुआ है। भगवान श्री राम ने लंका विजय के पश्चात सीता मैया को गर्भवती अवस्था में परित्याग कर दिया था तब वे यहां रहीं थी एवं उनके पुत्र लव-कुश ने यहीं जन्म लिया था। यह ऋषि वाल्मीकि जी का आश्रम था। भारत वर्ष में लव कुश का एक मात्र मंदिर यहाँ स्थापित है, जो हमें रामायण काल की अनुभूतियां का अहसास कराता है। भगवान राम ने जब अपना राज्य विस्तार करने के लिए अश्वमेघ यज्ञ करवाने के बाद घोड़ा छोडा तो उसे लव-कुश पकड़कर यहीं लाए थे। अश्वमेघ यज्ञ के इस घोड़े को छुडाने के लिए लक्ष्मण, भरत, हनुमान
सहित तमाम लोगों से लव-कुश ने यहीं पर युद्ध कर उन्हें हराया था। अन्त में जब श्रीराम स्वयं यहां आए तो माता सीता ने धरती से उन्हें अपनी गोद में समा लेने की प्रार्थना की। करीला ही वह स्थान है जहां माता सीता धरती की गोद में समा गयी। तब से करीला के इस मंदिर में सीता की पूजा होती आयी है। सम्भवत: यह देश का इकलौता मंदिर है जहां भगवान राम के बिना अकेले माता सीता स्थापित हैं। माता सीता के कथानक से जुड़े ऐतिहासिक प्रमाण तो नहीं हैं लेकिन जनश्रुतियां यही कहती हैं कि वह बाल्मीकि के आश्रम में रही थीं। यहां पर एक विशाल मेला हर साल रंगपंचमी पर आयोजित किया जाता है, जिसमें राई नृत्य बेडनी महिलाओं द्वारा किया जाता है। करीला मेला भारत का अद्भुत एवं अद्वितीय आयोजन है। इस आयोजन में 10 लाख से ज्यादा श्रृद्धालू पहुंचते हैं। देशभर से बेड़िया जाति की नृत्यांगनाएं यहां आतीं हैं और भगवान राम के पुत्र लव व कुश के जन्म का उत्सव मनाया जाता है। यहां मौजूद मंदिर में भगवान राम के दोनों पुत्र लव और कुश की प्रतिमाएं हैं। माता सीता भी विराजमान हैं परंतु भगवान राम नहीं हैं। होली से शुरू हो कर रंग पंचमी तक यह मेला बहुत धूम धाम एवं पूर्ण आस्था के साथ मनाया जाता है। यहां पर जानकी मैया का प्रसिद्ध मंदिर है जिसे लव कुश मंदिर भी कहते है। ऐसा माना जाता है कि इस मेले में आने से विवाहिता स्त्रियों की सूनी गोदें भर जाती हैं, जीवन में सुख समृद्धि आ जाती हैं और जिन लोगों की दुआएं यहाँ पूरी हो जाती हैं वे लोग राई नृत्य करवाते हैं।
पारंपरिक साधनों के साथ शुरू हुई गेर में अब अत्याधुनिक साधनों से रंग-गुलाल उड़ाए जाने लगे हैं। साथ ही इंदौर से शुरू हुई यह परंपरा पूरे मालवा में मनाई जाने लगी। होलकर शासनकाल में राजा और प्रजा दोनों मिल-जुलकर रंगों के इस पर्व को मनाते थे। धुलेंडी से लेकर रंगपंचमी तक पांच दिन लोग रंगों में डूबे नजर आते थे। आजादी के बाद 1948 टोरी कार्नर से बाबूलाल गिरी के प्रयासों से पहली गेर निकलनी शुरू। लेकिन समय के साथ इंदौर में कई गेर निकलना शुरू हुई। 1956 में कमलेश खंडेलवाल ने संगन कार्नर से राजवाड़ा तक संगम कार्नर नाम से गेर निकालना शुरू किया। 2001 में हिंदरक्षक महोत्सव समिति के माध्यम से एकलव्य सिंह गौड़ ने नर्सिंग बाजार से राजवाड़ा तक गेर निकालना शुर किया। इसके बाद 2003 में ईश्वर तिवारी ने मारल क्लब महोत्सव के बैनर तले झीपा बाखल से राजवाड़ा तक, 2008 में बाणेश्वरी समिति से गोलू शुक्ला ने मरीमाता से सांवेर रोड और दीपू यादव ने सांवेर रोड़ से मरीमाता तक, 2009 में राजपाल जोशी ने रसिया कार्नर समिति के माध्यम से कैलाश मार्ग से राजवाडा तक गेर निकालना शुरू कर दिया। अब इंदौर के साथ देवास, उज्जैन, मंदसौर, सहित कई शहरों में गेर निकाली जा रही है।
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