अद्भुत है इंदौर के देवी मंदिरी का इतिहास

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके। शरन्ये त्रयम्बिके गौरी नारायणी नमोस्तुते ।।
इंदौर के लगभग सभी देवी मंदिरों के दर्शनों का लाभ प्राप्त हुआ। ज्यादातर मंदिरों का इतिहास खंगालकर अखबार में आर्टीकल भी लिखे। कुछ प्रमुख मंदिरों की जानकारी ब्लॉग के जरिए आपसे शेयर कर रहा हूं.अविनाश रावत
महिषासुर मुद्रा वाली हरसिद्धी माता
सन् 1766 में शुक्ला परिवार के पूर्वज को स्वप्न आया कि खान नदी से सटी हुई बावड़ी में महिषासुर मुद्रा में देवी की प्रतिमा दबी हुई है। उन्होंने यह स्वप्न होलकर परिवार के दरबार में सुनाया तो अहिल्या बाई होल्कर के पुत्र ने खुदाई करवाकर देवी की मूर्ति बाहर निकलवाकर स्थापना करवायी। इसके लिए बावड़ी के पास ही वास्तु के अनुसार मंदिर का निर्माण इस तरह करवाया कि सूर्य की पहली किरण मूर्ति पर ही पड़ती है। जिस बावड़ी से माता की मूर्ति निकाली गई थी उस पर अब दीप स्तंभ का निर्माण कर दिया गया है। हर साल दशहरे के दिन हरसिद्धी माता शेर की सवारी करती हैं। इसके अलावा डोल ग्यारस के समय शहर के सभी डोल यहां आते हैं और पूजा के बाद वापस जाते हैं। यहां मान्यता है कि गेहूं, चावल, चुनरी व अन्य सामग्री से माता की गोद भराई करने से सभी मन्नतें पूरी होती हैं। गोद भरने की इस मान्यता को ओटी भरना भी कहा जाता है। मन्न्त पूरी करने के लिए यहां दीपक जलाने की भी मान्यता है।
तीन फैक्ट्रियां बेचकर बनाया कालका मंदिर
पेशे से इंजीनियर राधेश्याम अग्रवाल ने अपनी चार फैक्ट्रियों में से सागौन सीमेंट, फेब्रीकेशन और पल्वाराइजर मशीन बनाने की तीन फैक्ट्रियों को बेचकर सन् 1976 में खजराना में जमीन लेकर मां काली की एक छोटी प्रतिमा स्थापित की। खजराना निवासी हरिकिशन पाटीदार के घर पुत्ररत्न की प्राप्ति होने से उन्होंने मंदिर के समीप की जमीन मंदिर को दान दी। 1984 में राधेश्याम ने यहां भव्य मंदिर निर्माण और कालका माता की बड़ी मूर्ति बनाने का निर्णय लिया। जयपुर से 80 किलोमीटर दूर छितौली गांव से माता की संगमरमर की 9 फिट ऊंची मूर्ति बनवाकर इंदौर लाकर 31 जुलाई 1987 को चल समारोह निकाला गया। साढ़े तीन साल के गर्भाधान प्रयोग के बाद 17 फरवरी 1991, फाल्गुनी शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि में मीन राशि व उत्तरा भाद्रपद के प्रथम चरण के मुहूर्त में मां कालका की इस विशाल मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की गई। कालका माता मंदिर का निर्माण इस तरह किया गया है कि नवरात्र में ज्यादा भीड़ होने पर भी हर किसी को माता के दर्शन दूर से भी आसानी से हो सकें। मन्नत के लिए यहां किसी खास तरह के उपाय नहीं किए जाते हैं क्योंिक मान्यता है कि यहां के दर्शन मात्र से ही सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। इस मंदिर की एक बात यह भी है कि यहां नवरात्र में बोए जाने वाले जवारों की लंबाई अन्य स्थानों की अपेक्षा हर बार अधिक होती है साथ ही यहां  के पुजारी राधेस्याम अग्रवाल हर नवरात्र में मौन व्रत रखते हैं।
नवदुर्गा रूप में 500 साल पहले प्रकट हुई बिजासन माता

बिजासन टेकरी पर माता 500 साल पहले नौ देवियों के रूप में मां बिजासन प्रकट हुई थी। बिजासन माता के प्रकट होने संबंधी कोई प्रमाण नहीं है लेकिन मंदिर की स्थापना से होलकर वंशजों का नाता होने के कुछ प्रमाण मौजदू है। होलकर वंश के पूर्वज शिकार के लिए बिजासन टेकरी से पास से गुजरते समय घंटियों व भजनों की आवाज सुनाई दी तो वे मंदिर तक पहुंचे। यहां उन्होंने पुत्र की मन्नत मांगी और मन्नत पूरी होने पर भव्य मंदिर का निर्माण कराया। मन्नत के लिये यहां माता की गोद भरने की मान्यता है। बीमार व्यक्ति के शरीर के जिस अंग में तकलीफ होती है, चांदी से बना हुआ वही अंग माता को भेंट करने से तकलीफ दूर होती है।  एक अन्य मान्यता है यह भी है कि नि:संतान दंपति संतान प्राप्त के लिए जीव के बदले जीव माता को अर्पित करते हैं अर्थात संतान प्राप्ति के बाद मंदिर को गाय या अन्य कोई जानवर दान में दिया जाता है। मंदिर पुजारी सतीषवन गोस्वामी की कई पीढियां इस मंदिर की पूजा करते आए हैं। मंदिर में आला-ऊदल दर्शन करने आया करते थे। मन्नत पूरी करने के िलए चांदी का अंग, जीव के बदले जीव, गोदभराई जैसे कई तरह के उपाय यहां किए जाते हैं।
आर्य व द्रविड स्थापत्य शैली में बना है अन्नपूर्णा मंदिर
अन्‍नपूर्णा, इंदौर में स्थित एक भव्‍य मंदिर है। यह इंदौर का पुराना मंदिर है। प्रभानंद स्वामी 57 साल पहले जयपुर से 3 फुट ऊंची मार्बल से बनी मां अन्नपूर्णा की प्रतिमा लेकर आए थे। 21 फरवरी 1959 को 2 एकड़ में फैले मंदिर परिसर में इस मूर्ति की स्थापना की गई। इस मंदिर को 9 वीं शताब्‍दी के भारत और आर्य व द्रविड़ स्‍थापत्‍य शैली के मिश्रण से बनाया गया था।
यह मंदिर, हिंदूओं की देवी अन्‍नपूर्णा को समर्पित इस मंदिर की ऊंचाई 100 फीट से भी अधिक है। मंदिर की अद्भुत स्‍थापत्‍य शैली, विश्‍व प्रसिद्ध मदुरै के मीनाक्षी मंदिर से प्रेरित है। मंदिर का द्वार भव्‍य है। चार बड़े हाथियों की मूर्ति द्वार पर सुसज्जित हैं।
मंदिर परिसर के अंदर, अन्‍नपूर्णा, शिव, हनुमान और काल भैरव भगवानों के अलग-अलग मंदिर है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर रंगीन पौराणिक छवियां बनी हुई है। इस मंदिर का मुख्‍य आकर्षण कमल में बैठे भगवान काशी की साढ़े चौदह फुट ऊंची मूर्ति है।
स्थापना के बाद से इस स्थान को इन्दौर के प्रमुख आध्यात्मिक केंद्र में इसकी गणना होने लगी यहां भक्तों की बढ़ती भीड के चलते विस्तृत जमीन की जरुरत थी। इसी उद्देश्य से मां अन्नपूर्णा के नाम से एक ट्रस्ट रजिस्टर किया गया और जमीन व मंदिर संबंधी अन्य काम इसी ट्रस्ट के माध्यम से संचालित हुए।
इस ट्रस्ट के के माध्यम से मंदिर परिसर का विकास करने के लिए कई तरह के नए निर्माण हुए। शिव मंदिर इसका एक उत्कृष्ट नमूना है। भव्य वेद मंदिर जिसमें लोग बैठकर भजन सत्संग का लाभ उठाते है वह भी ट्रस्ट बनने के बाद बनाया गया।
बच्चों को धार्मिक शिक्षा देने के लिए ट्रस्ट द्वारा अन्नपूर्णा विद्यालय, अन्नपूर्णा वेद-वेदांग विद्यालय चल रहा है। साथ ही आसपास के गरीब छात्रों की 12 तक की पढ़ाई मामूली फीस के खर्च पर मंदिर द्वारा वहन किया जाता है।
शहर के हृदय स्थल में बसी महालक्ष्मी
इंदौर शहर के हृदय स्थल राजवाड़ा से लगे हुए प्राचीन महालक्ष्मी मंदिर में महाल्क्षमी सुश्रृंगारित प्रतिमा स्थापित है। यह मंदिर होलकर रियासत की श्रद्धा का प्रतीक होने के साथ-साथ समूचे इंदौरवासियों के लिए भी बहुत महत्व रखता है। 1832 में इस मंदिर का निर्माण मल्हारराव (द्वितीय) ने कराया था। 1933 में यह तीन तल वाला मंदिर था जो आग के कारण तहस-नहस हो गया था। 1942 में मंदिर का पुनः जीर्णोद्धार कराया गया था। इस प्राचीन मंदिर का होलकर रियासत में कुछ खास महत्व था। राजवाड़ा में होलकर रियासत के दफ्तर में दाखिल
होने से पहले अधिकारी, कर्मचारी महालक्ष्मी मंदिर के अंदर जाकर जरूर दर्शन करते थे। तब से यानी ढाई सौ साल से यहाँ श्रद्धालुओं का ताँता-सा लगा रहता है। प्रतिदिन यहाँ हजारों की संख्या में श्रद्धालु प्रतिमा के दर्शन करते हैं। पूरी तरह लकड़ी से बने मंदिर को  मुंबई के महालक्ष्मी मंदिर की तर्ज पर जीर्णोद्धार करके भव्य रूप दिया जा रहा है। 20 लाख रुपए खर्च कर किशनगढ़ के कारीगर पत्थरों को एन्टीक लुक देकर इस मंदिर को संवार रहे हैं। मंदिर का निर्माण इस तरह से किया जा रहा है कि श्रद्धालु प्रतिमा के दर्शन सड़क से भी कर पाएँगे। यहां के पुजारी पुरुषोत्तम दुबे की कई पीढियां  इस प्राचीन महालक्ष्मी मंदिर की पूजा कर रहे हैं। मनोकामना के लिए कोई खास उपाय जरूरी नहीं बल्कि दर्शन मात्र से कार्य सिद्ध होते हैं।
सौ साल पहले स्थापित हुई मां कालका
विजयनगर चौराहा स्थित मंदिर में मां कालका की स्थापना करीब सौ साल पहले की गई थी। इंदर चंद यादव के पिता यहां गाय चराने के लिए आया करते थे उसी दौरान बरगद के पेड़ के नीचे उन्होंने भैरो बाबा की मूर्ति स्थापित की। इसके कुछ सालों बाद इंदर यादव का स्वप्न आया कि पेड के नीचे मूर्ति स्थापित है लेकिन साथ में माता की मूर्ति अब तक स्थापित नहीं हुई है। स्वप्न के आधार पर उन्होंने जयपुर से 5 फिट की मां कालका की मूर्ति लाकर स्थापित कर दी। तब से यादव परिवार ही इस मंदिर की सेवा कर रहा है। चंूकि मंदिर यादव परिवार ने बनवाया है इसलिए यहां माता और भैरोबाबा को दूध चढ़ाने की परंपरा है। इसके अलावा धागा व नारियल बांधने और उल्टा स्वास्तिक बनाने से भी मन्नत पूरी होने की मान्यता है। मंदिर के व्यवस्थापक कैलाश चंद यादव चार पीढ़ियों से हम लोग ही इस मंदिर की सेवा कर रहे हैं। यहां माता को सात दिन तक दूध चढ़ाने, नारियल व धागा बंाधने से सभी लोगों की मन्नत पूरी होती है।
कॉलोनी से पहले हुई महालक्ष्मी की स्थापना
महालक्ष्मी नगर कॉलोनी की स्थापना से पहले यहां महालक्ष्मी मंदिर की स्थापना की गई थी। सुगंध चंद अग्रवाल ने यह कॉलोनी बनाने से पहले 1990 में 6000 वर्गफीट में सबसे पहले महालक्ष्मी मंदिर बनाया था। मंदिर में मूर्ति स्थापित होने के बाद यहां के प्लाट बेचना शुरू किए गए। अब महालक्ष्मी नगर के ज्यादातर लोग अपने दिन की शुरूआत महालक्ष्मी के दर्शन से ही करते हैं। महालक्ष्मी मंदिर में प्रत्येक शुक्रवार के साथ ही दीपावली पर माता की विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। इसे संयोग कहिए या लक्ष्मी का प्रभाव मंदिर में पिछले 24 सालों से उल्लू का एक जोड़ा रोज आकर बैठता है। अब उल्लू के बच्चे भी इस जोड़े के साथ बैठते हैं।




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