स्वप्न और चमत्कारों के आधार पर स्थापित हुए शहर के प्रसिद्ध गणेश मंदिर

अविनाश रावत- 9826803107
शास्त्रों में शिव, शक्ति, विष्णु, गणेश और सूर्य की आराधना का उल्लेख है। इसमें भी सबसे पहले गणपति की पूजा का अधिक महत्व है। कहा जाता है कि गणपति की प्रथम पूजा करने से कार्य सफल होते है। इसके पीछे शास्त्रों में भगवान गणेश से जुड़ी कहानियों का तर्क दिया गया है। 2014 के गणेशोत्सव के दौरान पर मैं इंदौर के सभी प्रमुख गणेश मंदिरा का इतिहास खंगाला और दस दिन तक लगातार कॉलम प्रकाशित हुआ। इंदौर के गणेश मंदिरों में कुछ प्रतिमाएं स्वप्न के आधार पर स्थापित हुई तो कुछ चमत्कारों के आधार पर।  इस ब्लॉग के माध्यम से प्रमुख मंदिरों के निर्माण से जुड़े ऐतिहासिक तथ्य बता रहा हूं। 

1735 में खुदाई कर निकाली थी खजराना गणेश की मूर्ति

खजराना गणेश मंदिर का निर्माण 1735 में तत्कालीन होल्कर वंश की शासक अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया था। तत्कालीन पुजारी मंगल भट्‌ट को स्वप्न आया कि यहां पर भगवान गणेश की मूर्ति जमीन में दबी हुई है उसे वहां से निकालो। पुजारी ने दरबार में जाकर स्वप्न की बात अहिल्याबाई को बताई जिसके बाद उन्होंने सेना भेजकर खुदाई शुरू करवाई। कुछ दिन की खुदाई के बाद यहां से भगवान गणेश की मूर्ति मिली जिसकी स्थापना करवाई गई। मूर्ति निकालने के लिए खोदी गई जगह को कुंड का रूप दिया गया। पुरातत्व विभाग उपलब्ध अभिलेखों के मुताबिक 1759 में वेदमूर्ति हनुमंत भट्‌ट इस मंदिर के प्रमुख पुजारी थे। इंदौर राज्य के संस्थापक मल्हारराव होल्कर के शासन काल में इसके रख रखाव हेतु भूमि दान दी गई थी। पूर्वाभिमुखी यह मंदिर किसी प्राचीन मंदिर की बुनियाद पर आधारित परमारकालीन टीले पर विद्ममान है। इसके तल विन्यास में मंडप अंतराल एवं गर्भगृह है। अर्द्धमण्डप का गुम्बद षष्टपहलू स्तंभों पर आधारित है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान गणेश के साथ सरस्वती की मूर्ति भी स्थापित है। यह मूर्ति भी खुदाई के समय ही प्राप्त हुई थी। खजराना गणेश की यह मूर्ती 1735 में अहिल्या बाई होल्कर द्व‌ारा पंडित मंगल भट्‌टे के सपने के आधार पर खुदाई कर निकाली गई थी। इस मूर्ती के निकलने वाले स्थान पर कुंड बनाया गया है जो मंदिर के ठीक सामने है। 279 सालों से यह मूर्ती भक्तों की आस्था का प्रमुख केन्द्र है। यहां कई फिल्मी हस्तियां, नेता, अधिकारी अपनी मनोकामना पूरी करने आते रहते हैं।

बड़े गणेश बनाने से पहले हुई थी छोटे गणेश की स्थापना

1899 में नारायण दाधीच को स्वप्न आया जिसमें भगवान गणेश ने 25 फीट की मूर्ति बनाने को कहा। दाधीच ने इस स्वप्न के आधार पर मूर्ति निर्माण का कार्य शुरू कर दिया। 25 फीट लंबी और 14 चौड़ी मूर्ती बनाने के लिए राजस्थान से कारीगर बुलवाए गए।  खुद नारायण दाधीच सभी तीर्थ स्थानों की मिट्‌टी, सभी पवित्र नदियों का जल लेकर आए। इससे पूजन करने के बाद मूर्ति बनाने में अष्टधातु के सरिए, चूना, हल्दी, गुड, मैथीदाना, लाख पाउडर का इस्तेमाल कर तीन साल में मूर्ति का निर्माण पूरा हुआ जिसकी स्थापना 1901 में शास्त्रोक्त तरीके से गई। इसी मूर्ती को हम बड़े गणपति के नाम से जानते हैं। बड़े गणपति की स्थापना से जुड़ा महत्वपूर्ण तथ्य है कि इस मूर्ति को बनाने से पहले शास्त्रोक्त तरीके से पहले गणेश जी की छोटी मूर्ती की स्थापना विधिवत तरीके से की गई उसके बाद ही बड़ी मूर्ती का निर्माण शुरू हुआ। वह छोटी मूर्ती आज भी बड़ी मूर्ती के दोनों पैरों के बीच में स्थापित है। बड़े गणपति की मूर्ति का श्रंगार साल में चार बार किया जाता है। बैसाख और माघ की चतुर्थी के साथ ही करवाचौथ और भादो की चुतुर्थी यानि गणपति जी के जन्मोत्सव पर विशेष श्रंगार होता है। यह श्रंगार करने में आठ दिन लगते हैं। श्रंगार करने में 32 किलो सिंदूर, 15 किलो घी के साथ श्रंगार की अन्य सामग्रियों का इस्तेमाल किया जाता है।

मनोकामना के लिए भेजते हैं विदेशों से पत्र, फोन कर गणेश जी के कान में बोलते हैं मन्नत

महल कचहरी जूनी इंदौर स्थित जूना चिंतामण गणेश को देश-विदेश के भक्त अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए पत्र भेजते हैं। पुराने दस्तावेजों से मिली जानकारी के मुताबिक इस मंदिर की स्थापना परमार कालीन है। मंदिर के पुजारी के पूर्वज संवत 1111 से इस मंदिर की पूजा कर रहे हैं। इस मंदिर से एक ऐतिहासिक घटना जुड़ी हुई है। औरंगजेब लूटपाट व मंदिर को नष्ट करने के उद्देश्य से इस मंदिर के दरवाजे की सांकल तोड़कर घुसा लेकिन अंदर पहुंचते ही भगवान गणेश उसे पीर दरगाह के रूप में नजर आए।  यह देखते ही औरंगजेब बगैर लूटपाट और तोड़फोट के ही मंदिर की चौखट पर मत्था टेककर वापस लौट गया। इस घटना का जिक्र पुरातत्व विभाग में मौजूद मंदिर से जुडे दस्तावेजों में भी किया गया है। समर्थ रामदास स्वामी ने भी इस मंदिर में कुछ समय निवास किया था। उन्होंने ने मंदिर में हनुमान जी की स्थापनी की।  समर्थ रामदास के मंदिर में निवास करने के दौरान ही छत्रपति शिवाजी उनसे मिलने मंदिर में आए थे। होलकर वंश की शासक रही देवी अहिल्याबाई भी अक्सर यहां दर्शन करने आया करती थीं और जब भी होलकर परिवार में जब भी कोई मंगल कार्य होता तो पहली पत्रिका इसी मंदिर के गणपति जी को दी जाती थी। मंदिर की लोकप्रियता और भगवान में आस्था का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि मनोकामना पूरी करने के लिए भक्त विदेशों से इस मंदिर में गणेशजी के नाम से पत्र भेजते हैं। यही नहीं देश-विदेश के भक्त पुजारी के मोबाइल पर फोन कर गणेश जी के कान में मन्नत बोलते हैं।

औरंगजेब से बचाने के लिए कुंए में डाली थी शीतलामाता बाजार

स्थित सिद्धी विनायक गणेश की मूर्ती, सालों बाद निकालकर दोबारा की गई स्थापना

संवत् 1632 में घिसालाल मुछाल ने  रणथम्बोर से गणेश जी की प्रतिमा लेकर आए। औरंगजेब के शासनकाल में जब देशभर में हिंदू देवी देवताओं की मूर्तियां खंडित की जा रही थी तब उन्होंने इस मूर्ति को बचाने के लिए वर्ममान शीतलामाता बाजार में स्थित बड वृक्ष के नीचे बने एक कुंए में इसे डाल दिया। संवत् 1862 में प्रभुदयाल शर्मा के पूर्वजों ने इस मूर्ति को वापस निकालकर बड़ के पेड के नीचे स्थापित कर दिया। कई सालों तक ये कुंए के पास ही स्थापित रहे। इसके पश्चात शीतलामाता बाजार में इन्हें पुन: स्थापित किया गया। हर महीने की चतुर्थी के दिन यहां पर भगवान गणेश को छप्पन प्रकार के भोग लगाए जाते हैं। करीब 40 साल पहले गणेश की इस प्रतिमा से स्वयं चोला उतरने लगा। तब कई लोगों ने मूर्ति के वास्तविक दर्शन किए। भव्य आयोजन कर फिर से मूर्ती पर चोला चढ़ाया गया। मनोकामना के लिए यहां दर्शन कर सात परिक्रमा लगाने से मनोकामना पूरी होने की मान्यता है। एक अन्य मान्यता यह भी है कि बुधवार के दिन 21 मोदक का भोग लगाने के बाद 7 परिक्रमा लगाने से कुंवारी कन्याओं का विवाह शीघ्र हो जाता है। 

एक नारियल जो कहलाया एकाक्षी नारियल वाले गणेश

पंडित मुरलीधर व्यास को यजमानों के घर पूजन कराने में एक नारियल मिला। मुरलीधर ने उस नारियल को फोडने के लिए उसका जूट (जटा)  हटाना शुरू किया तो उसमें बीच जैसी कोई आकृति दिखाई दी। इसके बारे में ज्यादा जानने के लिए उन्होंने बड़ा रावला के वैद्य रामचन्द्र जमींदार को यह नारियल दिखाया। रामचन्द्र ने बताया कि इस नारियल में बड़ा बीज बन रहा है। यह बीज यदि किसी गर्भवति महिला को खिलाया जाए तो बच्चे की सेहत के लिए बहुत फायदेमंद होगा। मुरलीधर ने नारियल संभालकर घर में रख लिया। 18 सितम्बर 1985 दिन बुधवार को गणेश चतुर्थी थी। गणेशजी की स्थापना का शुभ मुहूर्त 11.45 बजे का था। मुरलीधर हर वर्ष गणेश स्थापना करते थे लेकिन इस दिन किसी कारणवश वे समय पर मूर्ती नहीं ला पाए। उन्होंने निश्चय किया कि मूर्ति भले नहीं ला पाए लेकिन समय पर यह नारियल फोड़कर गणेशपूजन तो करेंगे ही। निश्चित समय पर उन्होंने नारियल फोड़ने के लिए हाथ ऊपर किया तो वह ऊपर ही अटक गया। उन्होंने तीन बार यह नारियल फोड़ने का प्रयास किया लेकिन फोड़ नहीं पाए। इसके बाद उन्होंने नािरयल को ठीक से देखा तो उसमें जो बीज बन रहा था उसमें सूंड जैसी आकृति महसूस हुई। यह देखकर मुरीलधर व्यास ने उसी नारियल को भगवान गणेश के रूप में अपने घर में ही स्थापित कर लिया। साधारत: नारियल 6 से 8 माह में सूखकर गोल हो जाता है या सड़ जाता है। अगर उसमें बीज बनता है तो वह भी ज्यादा दिन नहीं टिक पाता है। जिस नारियल को एकाक्षी नारियल वाले गणेश के रूप में पूजा जा रहा है वह नारियल 29 साल पहले जैसा था आज भी वैसा ही है। नारियल रूपी यह गणेश मंदिर फिलहाल मुरलीधर व्यास के घर में स्थापित हैं लेकिन लोगों की आस्था के चलते यहां पर मंदिर बनाने की योजना पर काम चल रहा है।  भजन गायक अनूप जलोटा अक्सर नारियल वाले गणेश के दर्शन के लिए आते हैं। 17 अगस्त को भजन गायक अनूप जलोटा ने नारियल वाले गणेश को लेकर भजन एलबम भी रिलीज किया है। 

200 पहले मिले स्वयंभू गणेश, बड़े गणपति से छोटे होने पर पड़ा छोटे गणेश नाम, पिता-पुत्र का मंदिर नाम से भी है प्रसिद्ध

करीब 200 साल पहले होलकर और ब्रिटिश शासकों के बीच मंदसौर में  हुए युद्ध में विट्‌ठल महादेव कीबे ने संधी कराई। संधि की ज्यादातर शर्ते होलकरों के पक्ष में थी। इससे खुश होकर होलकर शासकों ने  विट्‌ठल को जागीर दे दी। विट्‌ठल महादेव कीबे को तात्या जोग के नाम से भी जाना जाता था। जागीर की जमीने से तात्या को गणेश जी स्वयंभू मूर्ति प्राप्त हुई जिसे उन्होंने बावड़ी के पास स्थापित कर दिया। विट्‌ठल को तात्या जोग भी कहते थे और उन्हीं के नाम पर बावड़ी का नाम तात्या बावड़ी है।  1905 में लक्ष्मीबाई कीबे ने यहां पर गणेशजी की बड़ी मूर्ति की स्थापना करवाई। चूंकि 1901 में इंदौर में ही गणपति की 25 फिट की मूर्ति की स्थापना हो चुकी थी और यह मूर्ति बड़ा गणपति से छोटी थी तो इसे छोटा गणेश के नाम से जाना जाने लगा। 1998 में इस मंदिर की देखरेख के लिए ट्रस्ट बनाया गया है। इस ट्रस्ट का नाम गणेश के नाम पर ही हेरंभ ट्रस्ट रखा गया है। करीब 2000 वर्गफीट में फैले परिसर में 800 वर्गफीट में गणेश जी का मंदिर बना हुआ है। इसके ठीक सामने भगवान शिव का मंदिर भी है। इसी वजह से इस मंदिर को पिता-पुत्र का मंदिर नाम से भी जाना जाता है।

धन की पोटली है गणेश के हाथ में, नाम पड़ा पोटली वाले गणेश 

शादियां करवाने के लिए जाने जाते हैं , हल्दी की गांठ से पूरी होती है मन्नत

जूनी इंदौर में शनि मंदिर के पास 750 साल पहले राजस्थान से आए गड़रियों ने सिद्धी विनायक गणेश की स्थापना की थी। ढ़ाई फिट की गणेश जी की यह एकमात्र ऐसी मूर्ती है जिसमें उनके हाथ में धन की पोटली है। इसी वजह से इन्हें पोटली वाले सिद्धी विनायक गणेश कहा जाता है। यह मूर्ति गडरियों ने खुद ही बनाई थी। 1000 वर्गफिट में फैले मंदिर को अब राजस्थानी कारीगर गणेश महल का रूप दे रहे हैं। पुराणिक परिवार के पूर्वज कई सालों से पोटली वाले गणेश की पूजा कर रहे हैं। सालों से यहां हल्दी की गांठ से मन्न पूरी होती है। पांच साल पहले सवा लाख हल्दी गांठों से यहां पर गणेशजी की अर्चना की गई थी। यही गांठे लोगों की मन्नत पूरी करने के लिए दी जा रही हैं। जिन लोगों के विवाह में या अन्य किसी कार्य में बाधा होती है, उन्हें गुरूवार के दिन यहां से सिद्ध की हुई हल्दी की गांठ दी जाती है। इस गांठ को पीले कपड़े में लपेटकर पूजा करने से बाधाएं दूर होती हैं और अविवाहितों का शीघ्र विवाह हो जाता है। 

सिर्फ पुष्य नक्षत्र में ही हुआ चिंताहरण गणेश का निर्माण

जूनी इंदौर 40 रावजी बाजार मेन रोड़ पर स्थित श्री गौड़ विद्या मंदिर में विराजित खड़े गणेश का करीब प्राचीन मंदिर है। इन्हें चिंताहरण गणेश के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर में स्थापित प्रतिमा में गणेशजी को खड़े दिखाया गया है। करीब तीन सौ साल पहले शालिगराम शास्त्री के पूर्वज को स्पप्न आया कि कान्ह (खान) नदी के श्रीहरि घाट के पास नदीं में गणेशजी की प्रतिमा दबी है। स्वप्न के आधार पर उन्होंने समाज के लोगों के साथ मिलकर नदी में उल्टी दबी हुई काले पाषाण की प्रतिमा बाहर निकाली। नदी से मिली इस मूर्ति को पर गुरू पुष्य नक्षत्र में घिसना शुरू किया गया। खास बात यह है कि इस मूर्ति का निर्माण सिर्फ पुष्य नक्षत्र में ही किया गया है। कई महीनों के पुष्य नक्षत्र में निर्मित इस मूर्ति की स्थापना भी गुरू पुष्य नक्षत्र में ही की गई। काले पाषाण की इस मूर्ति की लंबाई जानने के लिए कुछ सालों पहले दस फीद गहराई तक खुदाई की गई थी, लेकिन लंबाई का सही पता नहीं लगाया जा सका। यहां मनोकामना पूरी करने के लिए लोग हल्दी की गांठ की माला गणेश जी को चढ़ाते हैं।

यहां बनते है होलकर स्टेट की पगड़ी वाले गणेश

150 साल पहले होलकर राजवाड़ा में विराजने वाले होलकर स्टेट की पगडी पहने हुए गणपति की मूर्ति बनाने की शुरुआत जूनी इंदौर के खरगौड़कर परिवार ने की। त्रंयम्बकराव ने खरगौड़कर परिवार की ओर से पहली बार राजवाड़ा में विराजने वाले होलकर स्टेट की पगड़ी पहने हुए गणेश की पार्थिव की मूर्ति बनाने की शुरूआत की। उनके बाद मोरोपंत, फिर सखाराम खरगौड़कर ने यह मूर्ति बनाने की परंपरा जारी रखी। मोरोपंत के भाई विश्वनाथ ने राजवाड़ा में स्थापित होने वाले गणेश जैसी ही एक पगड़ी पहने हुए पार्थिव की मूर्ती बनाकर जूनी इंदौर में सदा के लिए स्थापित कर दी। तभी से इन्हें पगड़ी वाले गणेश के तौर पर जाना जाता है। आज भी राजवाड़ा में स्थापित होने वाले पगड़ी वाले गणेश की मूर्ति यहीं से बनती है। इस परंपरा को श्याम खरगौकर निभा रहे हैं। इंदौर का यह खरगौड़कर परिवार गणेश मूर्ति बनाने के लिए  ही जाना जाता है। मंदिर परिसर में ही करीब 130 साल पुराना समी का पेड़ भी है। मान्यता है कि समी की पत्तियां गणेश जी को अर्पित करने से मनोकामना पूरी होती है। लोग इस पेड़ की पत्तियां दशहरे पर शस्त्र पूजन और दीवाली पर लक्ष्मी जी को अर्पित करने के लिए भी ले जाते हैं। 

अद्भुत हैं दो सूंड वाले गणेश

रावजी बाजार मेन रोड़ पर पीपल के पेड़ के नीचे प्राचीन चिंतामण गणेश का छोटा मंदिर है। यह करीब दो सौ साल पुराना है। बड़े रावला के जमींदार की जमींदारी में आने वाले इस मंदिर में भगवान गणेश की दो प्रतिमाएं स्थापित हैं। बांए तरफ सूंड़ वाली प्रतिमा काले पत्थर से निर्मित है। दांयी तरफ सूंड वाले गणेश की प्रतिमा सफेद पत्थर पर बनाई गई है। इसी वजह से इस मंदिर को दो सूंड़ वाले गणेश के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर के अंदरूनी भाग में गणेशजी के सिंहासन के ठीक ऊपर दो हाथी व दो मोर पत्थर में नक्काशी कर बनाई गई है। मंदिर की खास बात यह है कि इसकी गुम्बज में अंदर की ओर ठीक गणेश की मूर्ती के ऊपर शिवलिंग स्थापित हैं। गर्भगृह में अंदर देखने पर शिवलिंग देखा जा सकता है। वर्तमान में संतोष पाठक यहां के पुजारी हैं और करीब 125 साल से उनके पूर्वज इस मंदिर की पूजा  करते आए हैं।

कर्फ्यू के दौरान निकाले गए आंकड़े वाले गणेश

वैसे तो इंदौर में कई लोगों के घरों में आंकड़े की जड़ से निकले गणेश स्थापित किए गए हैं, लेकिन आंकड़े की जड़ से पूर्ण स्वरूप में निकली गणेश प्रतिमा सिलावटपुरा में विराजित है। इन्हे तेजेस्वर स्वयंभू चिंतामण गणेश के नाम से भी जाना जाता है। 4 सितंबर 1983 को हरसिद्धी की फूल मंडी स्थित आकंड़े के पेड के नीचे खुदाई की। तेजकिरण राठौर अपने घर में विराजित बिजासन देवी नर्मदेश्वर महादेव की पूजा के लिए हरसिद्धी मंदिर के सामने नदी किनारे लगे सालों पुराने सफेद आंकड़े के पेड़ से फूल तोड़कर लाया करते थे। फूल मंडी की फेसिंग के लिए एक दिन इस पेड़ को काट दिया गया। कुछ दिन बाद तेजकरण को स्वप्न आया कि जिस पेड़ से वे फूल तोड़कर लाते थे उसकी जड में गणेश की प्रतिमा है। इस स्वप्न के आधार पर उन्होंने पुष्य नक्षत्र में गणेश प्रतिमा निकालना तय किया। उसी दिन कर्फ्यू घोषित हो गया, लेकिन तेजकरण ने किसी तरह  वहां पहुंचकर खुदाई की। कड़ी मेहनत के बाद खुदाई कर निकाली गई डेढ फीट ऊंची जड़ में गणेश की प्रतिकृति दिखाई दी। इस प्रतिमा को शास्त्रोक्त विधि से 4 सितंबर 1984 को उन्होंने अपने घर पर ही स्थापित किया और घर को ही गणेशधाम बना दिया। अब इस प्रतिमा को आंकड़े वाले गणेश के नाम से पहचाना और पूजा जाता है।

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