भगवान की तैनाती – नेताजी के दरबार में
एक ज़माना था जब भगवान मंदिरों में विराजते थे। भक्त उनके दर्शन के लिए लंबी कतारों में खड़े होते थे, और पुजारी उन्हें आरती उतारते थे। लेकिन अब समय बदल चुका है – अब भगवान खुद नेताजी की सिफ़ारिश से मिलते हैं।
आजकल भगवान को एक नई जिम्मेदारी मिल गई है – "राजनीतिक सलाहकार और फुल-टाइम वीआईपी दरबारी"। कोई चुनाव जीत जाए, तो नेताजी कहते हैं – “ये सब महाकाल की कृपा है।” और अगर हार जाएं, तो भगवान की लीलाओं पर सवाल उठने लगते हैं। भक्ति अब नहीं रही, बस राजनीतिक भागीदारी रह गई है।
महाकाल मंदिर में हालत ये हो गई है कि गर्भगृह की दहलीज से 'वीआईपी दर्शन' नाम की बीमारी फैल गई है। आम भक्त को एक झलक भी नहीं मिलती, लेकिन मंत्री, संतरी, सेल्फी प्रेमी और इंस्टा भक्त गर्भगृह तक घुस जाते हैं। महाकाल के सामने फोटो, वीडियो, लाइक-कमेंट, सब चलता है। ऐसे में लगता है कि शायद महाकाल का काम अब यही रह गया है कि वो सेल्फी लें, और किसी के इंस्टा स्टोरी में पॉपुलर हों।
सीएम से लेकर पीएम तक, मंत्री से लेकर पार्षद तक के लिए भगवान हमेशा ऑन ड्यूटी हैं। महाकाल हों, काशी विश्वनाथ, केदारनाथ, या बद्रीनाथ – गर्भगृह 24x7 खुला है, बस आपकी पहचान 'वीआईपी' होनी चाहिए। जैसे पुराने जमाने में भगवान तपस्वियों के लिए पहाड़ी के ऊपर रहते थे, अब वो नेताजी के ट्वीट्स और चुनावी इवेंट्स के लिए 'स्वचालित दरबारी' बन गए हैं।
इंदौर में नेता पुत्र रुद्राक्ष शुक्ला माता टेकरी पर पूरी गाड़ी चढ़ा लाए। मंदिर बंद था, लेकिन ‘मूड’ भगवान से बड़ा होता है। भले ही भगवान के शयन का समय हो, वे सोने गए हों, लेकिन नेता पुत्र आए हैं तो उठना ही पड़ेगा। कैसे नहीं उठेंगे, उठा ही दिए जाएंगे। फिर भले ही वे देवास टेकरी वाली माता ही क्यों न हों। पुजारी पर दबाव बनाया जाएगा, उनके साथ अभद्रता भी होगी। फिर वही – शिकायत किसी और के नाम दर्ज! भगवान सोच रहे होंगे, “काश मुझे भी Z+ सुरक्षा मिलती!”
कुछ साल पहले जब एक राजनैतिक पार्टी ने "भगवान की सेवा में विश्वास" के प्रचार का बड़ा अभियान चलाया था, तो उसे लेकर भी आलोचना हुई थी। ये एक हद तक सत्य था कि एक पार्टी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में यह वादा किया था कि "हम मंदिरों में भगवान के दर्शन को और भी आसान बनाएंगे!" मंदिरों में अब भी भगवान हैं, लेकिन सिर्फ उन्हीं को दर्शन होते हैं जिनकी जेब में वोटों की शक्ति हो। आम भक्त अब लाइन में खड़ा हो कर सिर्फ भगवान की तस्वीर देखता है, और नेताजी की तस्वीर कैमरे में।
हर नेता ने एक भगवान, एक मंदिर और एक संत "फिक्स" कर रखा है। हनुमान जी ने पर्वत उठाया था, अब वो पर्वत राजनीति का बन चुका है। किसी नेता ने उसे अपने पॉवर सेंटर के रूप में अपॉइंट किया है। किसी ने महाकाल के शहर को पॉवर सेंटर बना लिया है – अब महाकाल के विष पान के अलावा नेताजी भी "पचाने" का काम करते हैं।
किसी नेता को युवा संत पसंद हैं जो "लाइव पर्चे निकालते हैं" और किसी को वो संत प्रिय हैं जो हर कठिनाई का हल "एक लोटा जल" बताते हैं। बड़े भगवान और उनके जन्म स्थान बड़े नेताओं के वश में हैं, जबकि छोटे-छोटे भगवान छोटे नेताओं के। बड़े मंदिरों में सिर्फ बड़े नेताओं की ही चलती है।
अब भगवान सिर्फ़ फोटो फ्रेम में नहीं, नेताओं की प्रचार सामग्री और सोशल मीडिया बायो में भी 'सेवा में' हैं। शायद अगली बार चुनाव घोषणा पत्र में लिखा जाए – "हम भगवान के एक्सक्लूसिव दर्शन सुनिश्चित करेंगे – बिना लाइन, बिना समय, बिना मर्यादा!"
भगवान भी अब सोच रहे होंगे: "हे शिव, हे विष्णु, हे ब्रह्मा, अबकी बार अवतार लेने से पहले नेताजी से एनओसी लेना ज़रूरी है। भक्त अब नहीं पुकारते, बस वोट बैंक की जयकार सुनाई देती है!"
जय लोकतंत्र! जय नेताजी!
अविनाश रावत, वरिष्ठ पत्रकार
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